शाश्वत नभ मे उँची उड़ान का,
सपना मैंने संजोया था
आसमान वीरान नहीं था
कुछ लोगों से परिचय भी था
पर चीलो की बस्ती में
खुद को ही अकेला पाया था
उत्तर गये, दक्षिण गये
पूरब और पश्चिम भी गये
अपने पुलकित पँखो को फैलाकर
सारा जहाँ चहकाया था
जीने की चाह मे जीवन बीत चला
अब अवशान की बेला आई
सोच रही क्या खोया क्या पाया
जो खोया वो मेरा ही कब था
जो पाया मैंने कमाया था
क्षोभ नही इस अनुभव का मुझको
मैं जो भी हूँ इसने बनाया है
सोच रही हूँ घर हो आऊँ,
नभ पे बादल जो छाया है
कल्पनाओ की महज़ उड़ान थी,
आँखे खुली, और ये क्या
धूप निकल आया है