Last modified on 20 मई 2008, at 19:20

ऊँची कुर्सी काला चोगा / रामकुमार कृषक

ऊँची कुर्सी काला चोगा यही कचहरी है

कोलाहल दीवारों जैसा चुप्पी गहरी है


चश्मा, टाई, कोट बगल में कुछ अंधीं आँखें

जिरह करेंगी देहातों से भाषा शहरी है


कहीं-कहीं पागें-टोपी सिर नंगे कहीं-कहीं

कहीं किसी सूरज के सिर पर छाया ठहरी है


नज़र एक-सी जिनकी उनको दुनिया खुदा कहे

यहाँ खुदा ऐसे हैं जिनकी नज़र इकहरी है


मकड़ी का जाला तो मकड़ी का घर-द्वारा है

मच्छर के डर से मानुष के लिए मसहरी है


ये कैसी अनबन चंदनवन ये आखिर कैसा

किसने विष ऐसा बांटा हर फीता ज़हरी है