ऊमस की है रात, न जाने कब बरसे!
दिन की आँच जुगाए सागर खौल रहे;
सुलग उठे न बनाग, अचल तक हौल रहे;
पसर न पाते पाँख; टँगे दृग अम्बर से!
घूँघट-ओट छलककर तारा-घट डूबे;
सूख रहे पनघट पर गीले मनसूबे;
बाहर का तम का ज़ोर कौन निकले घर से!
चढ़ा साँझ ही से क्या है, जो सीझ रहा?
गमक रहा आकाश, धरातल खीझ रहा;
'पी' की टेर पिया को जाने कब परसे!