राजमिस्त्री से हुई क्या चूक, गारे में
बीज को संबल मिला रजकण तथा जल का ।
तोड़कर पहरे कड़े पाबन्दियों के आज
उग गया है एक नन्हा गाछ पीपल का ।
चाय की दो पत्तियोंवाली
फुनगियों ने पुकारा
शैल-उर से फूटकर उमड़ी
दमित-सी स्नेह-धारा ।
एक छोटी-सी जुही की कली
मेरे हाथ आई
और पूरी देह, आदम
ख़ुशबुओं से महमहाई ।
वनपलाशी आग के झरने नहाकर हम
इस तरह भीगे कि ख़ुद जी हो गया हलका ।
मूक थे दोनों, मुखर थी
देह की भाषा
कर गया जादू ज़ुबां पर
गोगिया पाशा
लाख आँखें हों मुँदी --
सपने खुले बाँटे
वह समर्पण फूल का
ऐसा, झुके काँटे
क्या हुआ जो धूप में तपता रहा सदियों
ग्रीष्म पर भारी पड़ा ऋतुराज इक पल का ।
शब्दार्थ :
गोगिया पाशा= देहरादून का एक प्रसिद्ध जादूगर
(रचनाकाल : 15.02.2002)