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ऋतु-गीत / श्रीनिवास श्रीकांत

सपनों की फसलें पकने को हैं
लहलहा रहे हैं उम्मीदों के खेत
लगता है अच्छा समय आयेगा अब
आयेगा तो अपने साथ
जरूर लायेगा
वही पुराने दिन
ख़ुशियाँ गूँजेंगी हवाओं में
मौसम मनायेगा उत्सव

ओ, मेरी संगिनी आत्मा !
बहुत सहा तुमने अभी तक दुख
अब गाओ एक गाना
फसल पकने से पहले का
ताकि सुन लें
कन्दराओं में खामोश लेटी हवाएँ
सुन लें और चल दें
अपने-अपने पाहुनी
वनखण्डों की ओर

महके केवड़ा, चम्पा, गुलाब
चहके वे पंछी भी
जिन्हें कभी सुना था
गये कल इसी मौसम में

याद नहीं
क्या क्या थे उनके नाम
पिहु पिहु, डुपक-डुपक
कट-कट-कट
यही थी उनकी भाषा
हाँ यही।