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ऋतु संहार / मदन वात्स्यायन

मेरे हाथ के अबीर से यह अभी तक लाल है
और बेली की कौड़ियों की मेरी माला से
अभी तक सुगन्धित
तकियों के बीच में पड़ा यह लम्बा बाल
प्रिये, तेरे वियोग में मुझे डँस रहा है ।

वही शिद्दत, वही दुपहर, वही कछमछ, वही शोले---
और तब वही ठण्डी बयार ।
प्रियतमे बस तू नहीं है
और वह बात नहीं है ।

न तहजीब से, न शर्म से, न नज़ाकत से बँदे
उठे जो कोने से तो भरभराते भर गए बादर,
बरस पड़े---
गोया कि तेरे वास्ते ओ प्रिये, हमारा प्यार हों ।

तूने जो वह हरसिंगार की माला टाँग दी थी,
उस का एक एक सूखा कण उड़ गया
कि हमारे सोने के घर की दीवार पर काँटी से
आज भी लटका है
मकड़ी की डोर सा पतला उसका तागा ।

शरद और फागुन-चैत के बीच
उफ, कैसी यह सन्-सी लग रही सर्दी
तेरे ओंठों से जैसे कि निकला था,
'कल जाऊँगी ।'