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एकजुट / संतोष श्रीवास्तव

आठ सौ साल पुरानी
परम्परा को समाप्त कर
अब मिला है
सबरीमाला में प्रवेश तुम्हें

खुश क्यों हो!
क्या इतना तिरस्कार कम था!

घने वनों में स्वयं चुनना वनवास
अलग बात थी
आँखों पर स्वयं पट्टी बाँध
पति का साथ देना
अलग बात थी

तुम ही से जन्मी है सृष्टि
और तुम्हारा ही तिरस्कार!
पुरुषसत्ता कि ग़लत
परम्पराओं पे
अब न होना न्यौछावर
अब न सहना
अपमान, तिरस्कार

अब करना होगा महाघोष
कोई चमत्कार नहीं आएगा
तुम्हें ही होना होगा एकजुट