जेठ रौ
तपतौ दिन
तंदूर ज्यूं
सिलगती साळ
सूती पड़ी है थूं
नींद में अलोर
म्हारै पसवाड़ै
मांची ढाळ
म्हैं लिखतौ-लिखतौ
थारै कानी जोवूं -
माथै सूं
पसेव री लकीर
कनपटी रै गेलै
छाती कानी
होयी है व्हीर
सारस सरीखी
लाम्बी नस पर
नाड़ी फड़कै
सांसा रो अरहट चालै
गड़कै-गड़कै
इणी बीच
कदे-कदे थूं उरणावै।
स्यात कोई
सपनौ संतावै
जिण मांय
गड़तौ होसी
घिरस्त री गाडी रौ जूवौ
थारी खांदी
क्यूंकै थूं
एकलियो बळद
म्हारी आनन्दी
बळद तो
म्हैं ई हूं
बेकार बळद
जकौ जागतै थकै ई
करै कविता
अर थूं
नीनां में ई
खींचै गाड़ी।