Last modified on 7 मार्च 2010, at 12:56

एकाएक ही / चंद्र रेखा ढडवाल


सारी पका चुकने पर
वह बनाती है
हाथ ही से
रुपए के आकार जितनी
एक रोटी
दोनों तरफ़् से सेंककर
मुँह से हवा दे-दे ठंडाते
सोचती है कि निभ गया
आज भी धर्म
आँगन में खड़ी हो
आ-आ करती
टुकड़ा-टुकड़ा कर उसे बिखेरते
एड़ियों से एकाएक ही
पंजों पर आ जाती है औरत.