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एकाकी / नरेन्द्र शर्मा

इस धूप-छाँह की दुनिया में मन, सदा अकेले ही घूमो!
घूमो चाहे जंगल जंगल, चाहे उड़ तारों को चूमो!

धरती के चारों खूँट तुम्हारे हैं, चाहे जिस ओर चलो;
चारों सिम्तें अपनी ही हैं, तुम चाहे जो रस्ता पकड़ो।

बस एक बात लो गाँठ बाँध जिससे न कभी फिर हाथ मलो;
वह याद रही तो छुट्टी है, फिर चाहे जो रस्ता पकड़ो!

तुम भूल न जाना—दुनिया में है सदा अकेले ही रहना,
एकाकीपन को सह न सको, फिर भी एकाकी ही रहना!

यह तुम्हें नसीहत है मेरी, जिससे न कभी फिर हाथ मलो,
यह याद रहे तो छुट्टी है फिर चाहे भी जिस ओर चलो!

तुम दर्पन में भी कभी भूल खोजना नहीं जीवन-साथी!
मन, वह भी साथ नहीं देती, जो स्वयम तुम्हारी छाया थी!

यह याद रहे तो छुट्टी है फिर चाहे भी जिस ओर चलो!
चारों सिम्तें अपनी ही हैं, तुम चाहे जो रस्ता पकड़ो।

घूमो चाहे जंगल जंगल, चाहे उड़ तारों को चूमो!
पर धूप-छाँह की दुनिया में मन, सदा अकेले ही घूमो!

थक गए अगर अपनी उड़ान से अपने पास बिठाऊँगा,
मैं बड़े लाड़ से, बड़े प्यार से गा गा गीत सुनाऊँगा!

थक गए अगर अपनी उड़ान से, अपने पास लिटाऊँगा,
लोरी गा गा, दुलरा-दबोर, मैं मीठी नींद सुलाऊँगा!

थक गए अगर, मैं तुम्हें प्यार से आँखों में बिठलाऊँगा,
पलकों की ओट न होने दूँगा, सुन्दर स्वप्न दिखाऊँगा!

जब नींद ले चुकोगे, तुमको धीरे से चूम जगाऊँगा;
गा गीत सुनहले, तुम्हें उजेला सुन्दर देश दिखाऊँगा!

मैं बोलूँगा, बतलाऊँगा; चाहोगे, चुप हो जाऊँगा;
तुम जब उदास हो जाओगे, मैं हँसकर गले लगाऊँगा!

ओ सोनचिरय्या-से मेरे! ओ सोनजुही-से मन मेरे!
बस भूल न जाना इतना ही तुम मेरे हो—केवल मेरे!

जाओ, पर नेह लगाना मत; जाओ, पर मोह जोड़ना मत;
यह मैंने जो आदेश दिया, मन मेरे, उसे तोड़ना मत!

धरती के चारों खूँट तुम्हारे हैं, चाहे जिस ओर चलो;
चारों सिम्तें अपनी ही हैं, तुम चाहे जो रस्ता पकड़ो।

घूमो चाहे जंगल जंगल, चाहे उड़ तारों को चूमो!
पर धूप-छाँह की दुनिया में, मन, सदा अकेले ही घूमो!