सुनो!
आजकल नींद ने ओढ़ ली है
बंदिशों की खाल
फिर से
ये रंज-ओ-गम की फसलें
उग आती हैं बिना बोये
लंबी जाग से चिड़कती पलकें
और अनवरत चुभना चीजों का ...बारीक
कि जैसे लोहे को क्षय करता है रोज-ब-रोज
बूंद-बूंद गिरता पानी
बहो!
कि पीड़ा की धुरी टूट ही जाए
अच्छा है
इन्हें निर्माण का सामान न बनाया जाए ...
काया बदलती रात के दोनों छोर
ऐसे ही तुम्हारी तरह
देखा करते हैं शुक्र का खड़ा रहना
देखो!
कि उसका निरा एकाकी रहना चक्कर लगाना
विष पीना
दण्ड ही तो है
कभी सोचा है ...
अकाल भोगते इस पिण्ड को
लोग तारा क्यों कहते हैं?