क़तरा क़तरा
टपकता रहता है
किसी भयानक रात का स्याह दुख
अन्तर्मन के किसी कोने में
जाने कबसे
पल रही होती है
एक कविता अन्दर ही अन्दर
और एक दिन अचानक
रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है
हम नज़रें बचाते हैं
भागना चाहते हैं दामन झटक कर
तो जकड़ लेती है पाँव
बाध्य कर देती है क़लम को
घिसटते, थके पैरों से
सादा काग़ज़ पर दौड़ने के लिये।
पता भी नहीं चलता
और अवचेतन का एक लम्हा
जुड़ जाता है अस्तित्व से
हमेशा के लिये।
अनचाहे गर्भ की तरह होती है
अनचाही कविता भी
लेकिन बेचारे कवि के लिये तो
अस्पताल के दरवाज़े भी बंद होते हैं
निजात के रास्तों की तरह।