मैं मनुष्य
जो धरती की धुरी था
छोटी-छोटी इकाइयों में बंट गया हूँ
और आ गया हूँ
आज के अख़बार की सुर्ख़ी में
बनकर एक अंक
घटती चीज़ों से बढ गये दाम
बढ़ते आदमियों का घट गया मोल
और अब
टूट-टूट जाते हैं
बाड़ ग्रसी नदियों के कच्चे कगार
संयुक्त परिवार
मैत्रिक विश्वास
भातृ भ्रम
कांप-काप उठती है
ईंधन की लौ
कुछ खिंच गये हैं
पति-पत्नि के सम्बन्ध
कुछ ठण्डा-सा है
पिता का प्यार
कुछ भुरभुरा रहा है
मां का मोह
सच तो यह है
कि मैं एक आम आदमी
किसी धरती की धुरी नहीं।