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एक आश्रम अशान्त / दिविक रमेश

एक शान्त जलधारा है
एक शान्त किनारा है
मंदिर में गूँज रहा
घंटा भी शान्त है
मंत्र उच्चार रहे
भक्त भी शान्त हैं
बोलते भी शान्त हैं
हँसते भी शान्त हैं
प्रश्न सब शान्त हैं
उत्तर सब शान्त हैं


शान्त हैं
धरती से जुड़ी तमाम वनस्पतियाँ
शान्त हैं
आकाश को ताकते तमाम वृक्ष
कलरव भी शान्त है
शान्त है आवाज भी
शान्त हर ओर है
शान्त सब शोर है
शान्त आसपास है
क्षितिजों तक
बस शान्त ही शान्त है
तो फिर
रहना अशान्त मेरा
क्या नहीं है अनुचित?
खोजता हूँ तो पाता हूँ
एक मरियल सी जिज्ञासा है
एक लकीर सी शंका है
एक गर्दन उठाए स्वार्थ है
एक अनुभवहीन तर्क है
एक अहंकारी श्रद्धा है
एक चाटुकार विनय है
खोने में पाना है
देने में लेना है
शब्दों में शोर है
आवाज में भीड़ है
चिन्तन में चीर है
लालच के ढूँह पर
बैठा फकीर है।
शान्त को भीतर से
खाता हुआ अशान्त है।

चुप भी अशान्त है
सब कुछ अशान्त है।