घर, इत्मीनान, नींद और ख़्वाब
सबके हिस्से में नहीं आते
जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
सब को नसीब नहीं होतीं
जीवन के अर्थ खोलने के लिए
ख़ुद पर चढ़ाई पर्तों को
उतारना होता है
पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
जो आसानी से नहीं उतरती है
पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
उतरने में बहुत वक़्त लगता है
बहुत कड़वा और कसैला-सा एक तजुर्बा
यह ऊब बाहर से अन्दर नहीं आती है
बल्कि अन्दर से बाहर की तरफ़ गई है
कुछ बचा जाने की ख़्वाहिश के टुकड़े
कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी
बेमानी लगती है ।
इसी अफ़रा-तफ़री में इतना हो जाता है
तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
गहरे ज़मीन में जाती जड़ें
पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर पहुँचाती हैं
शाख़ें अपनी ख़ुशियाँ फूलों को सौंपती हैं
फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती है
इंसानी झुर्रियों जैसी पर्त-दर-पर्त
उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
और फिर नाख़ूनों की तरह बेजान हो जाता है ।