सन्नाटे के तीखे नाखून
गड़ जाते हैं
रोशनी की आँखों में
एक हलकी कराह के साथ
बंद हो जाती हैं
संभावनाओं की खिड़कियाँ
आस्था की टिमटिमाती लौ
दब जाती है रोजमर्रा की
जरूरतों के मलबे तले
एक तँग सुरँग में
किसी ताजे कटे अँग की तरह
छटपटाता है मौसम
वक्त के रेलिंग से कूदकर
आत्महत्या कर लेता है
एक और दिन.