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एक कविता कॉपेनहेगन से / महेश सन्तोषी

रोटियाँ बाँटने वालो और रोटियाँ बीनने वालों का एक बड़ा मेला
रोटियों के वायदों के साथ कल यहाँ समाप्त हो गया।
इस सदी के वायदे, अब अगली सदी में पूरे होंगे,
इसी बीच बहुत से भूखे बच्चे जवान, और बहुत से जवान भूख से बूढ़े होंगे!

इतिहास में पहली बार नहीं हो रहे हैं इस तरह के वायदे,
सिर्फ इनकी इबारतें बदलती रही हैं, बदलती रही है इनकी जुबान, इनके क़ायदे!

एक सदी से दूसरी सदी तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक
बराबर चलता रहा है, गरीबी का सफ़र।
रोटियाँ बाँटने वाले हमेशा और और वक्त मांगते रहे,
यह और बात है कि इस बीच पूरे के पूरे भूखे रहे!
रोटियाँ छीनने और बीनने के बीच के सभी फासले तय करते रहे हैं,
रोटियों के लिए, छोटे-बड़े वायदे!

शायद इतिहास की सरहद तक इसी तरह चलते रहेंगे ये सिलसिले,
समय और समाज कभी नहीं कर पाएँगे
सभी के लिए, रोटियों के सही-सही हिस्से!