सम्भव नहीं है सुव्यवस्थित कवि-कर्म
फिर भी दुर्निवार है
कविता का आगमन
क्योंकि स्थितियों का आग्रह है
काव्यात्मक न्याय
और कि चीज़ों के बारे में
स्वयं कुछ कहना है ज़रूरी ।
अतीत-मोह नहीं यह
न कोई कविता का पुनरागमन
(वह तो लगी ही रही साथ-साथ लगातार
पर अव्यक्त, अन्धेरी पार्श्वभूमि में)
यह सिर्फ़ अभिव्यक्ति के छूटे हुए सिरे को
बढ़कर थाम लेना है फिर से
क्योंकि कठिन समय में कविता
सीधे कविता के रूप में भी आना चाहती है
बाहर
मुक्त करके स्वयं को
सर्जक की सत्ता से,
वक़्त आने पर ख़ुद उसे भी
कटघरे में खड़ा करने को तैयार
वह स्वयं होना चाहती है समय-साक्षी ।
हृदय में खौलता तरल इस्पात
बहना चाहता है
सड़कों पर
अब यूँ इस तरह भी
एक बार फिर ।