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एक कविता योकोहामा से / महेश सन्तोषी

सागर तो अपने साथ नहीं लाया फिर भी,
लहरों में कोई विस्तृत प्यार उभर आया!

अब तो जीवन मुझको कोई अभिशाप नहीं,
पिछली भूलों पर कोई पश्चाताप नहीं।
कुछ क्षण जो पीछे रहे मील के पत्थर से,
वे ही मेरे जीवन का अन्तिम माप नहीं।
मैंने रेतों की पर्तें नहीं उघाड़ीं पर,
पलकों पर मन का मरुथल सहज उतर आया!

बिखरा जीवन, बिखरा सिन्दूर, दिशाओं में,
मुड़कर देखूं मैं क्या दफनाई चाहों में।
जो पृष्ठ साँझ ने उस सुदूर में खोल दिया,
ऐसा भीगा ज्यों उड़ते अश्रु हवाओं में।
वह गीत जिसे फिर गाते मेरे प्राण कँपे,
अनजान हवाओं ने अब फिर-फिर दोहराया!

सूरज हर दिन जिसको सुलगा, चुपचाप ढला,
अधजला क्षितिज अब तक भी पूरा नहीं जला।
मैं जिस अतीत को कब का गहरा गाढ़ चुका,
वह मेरी परछाई सा मेरे साथ चला।
मैं अन्धकार में अब तो बहुत अपरिचित सा,
पर आज तिमिर की बाँहों में फिर अकुलाया!