एक बूढा,
मगर कितने सालों से,
देखता हूँ उसे,
वही कद, वही काठी, वही कपडे,
वही पगड़ी और वही टोकरी सर पर,
वही तेज़ी पैरों में, वही खर्राश आवाज़ में,
बड़ी “कैडी” जुबाँ है उसकी, मगर दो टूक,
रोज सुबह उसकी आवाज़ सुनाई देती है,
जाने कितने सालों से,
हर दस पंद्रह सेंकेंड के गैप पर,
वह चिल्लाता है – “केले....केले...”
एक बार माँ ने कुछ केले ख़रीदे थे उससे,
तब से जब भी
घर की खिडकी पर आता है वो,
उसकी आवाज़ और तेज हो जाती है,
कब से चल रहा है वो बिना नागा,
कब से दोहरा रहा है वो – केले...केले...
अब तो बेशक बाँध दो पट्टी आँखों पर,
तब भी उसके क़दमों के चलने की आदत,
उसे रास्ता दिखा देगी,
क्या इतनी गहरी समाई आदत,
मौत के बाद भी छोड़ेगी पीछा,
उसकी रूह का ?