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एक खंडित तस्वीर / कर्मानंद आर्य

मैं बनारस की धरती पर खड़ा
हरिजन की एक मूरत हूँ
मूर्ख मुझे कहते हैं भगवान

मैं जूता सिलता हूँ आज भी
आज भी शाम को जब लौटता हूँ तो
धर्म से ज्यादा
अर्थ की चिंता में लगाता हूँ समय

जो मंदिर में खड़ा व्यापारी है
वह मुझे समझता है रविदासिया
जबकि सच बताऊँ
मैं चाहता हूँ चर्च की शरण रहूँ

कम से कम मनुष्य को
मनुष्य समझा जाए चर्च की तरह
ऐसा मैंने हर जनम चाहा
पर अब चाहता हूँ
मनुष्य को सिर्फ मनुष्य समझने से क्या होगा

कांशीराम की मूरत है, माया
बाबा साहेब भी खड़े हैं बगल में
सामाजिक समरसता में
मुझे भी बना दिया गया ‘राम भक्त’

यह पंडों पाखंडों की धरती है
राजनीति का अखाड़ा
भाषा माफियाओं का गढ़

मैं बनारस की धरती पर खड़ा
हरिजन की एक मूरत हूँ
मूर्ख मुझे कहते हैं भगवान