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एक गंगा-स्नान / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

इस तपन से जेठ की
घबरा गये थे प्राण,
पर अचानक याद आया, एक गंगा-स्नान।

एक दूजे का परस्पर कर गहे थे,
तैरकर कुछ दूर हम सँग-सँग बहे थे;
देख लहरों का लहर का स्नेह-गुम्फन,
एक पल को हो चले हम मौन-उन्मन;
पर न थे
इतने कभी हम चपल और नादान,
सह न पाये संयमों का हम कभी अपमान।

उम्र भर की प्यास को पनघट मिला था,
अन्ध-तम को ज्योति का जमघट मिला था;
एक नन्हा दीप बहता आ रहा था,
प्रीति के संगीत को दुहरा रहा था;
रह न पाये मौन
मुखरित हो चले थे प्राण,
वह तुम्हारा और मेरा अमर है सहगान।

तुम अखण्डित इस तरह मन में बसे थे,
जिस तरह भीगे वसन तन को कसे थे;
एक सँग निरखे गये दो एक तारे,
सान्ध्य-नभ पर जो कि पहले थे पधारे;
रेत पर यूँ
ककड़ियों के पात पात थे छविमान,
विरह-रेगिस्तान पर ज्यों मिलन-नखलिस्तान।

स्नेह-सिंचित बालुका पर बैठना वह,
बहुत विह्वल पुतलियों का भेंटना वह;
‘मैं तुम्हारा कौन,’-मेरा प्रश्न करना,
और उत्तर में तुम्हारा नभ निरखना;
मुग्ध विस्फारित नयन का
दिव्य वह आह्वान,
आज भी जिसमें समाये जा रहे हैं प्राण।