एक चिकना मौन
जिस में मुखर-तपती वासनाएँ
दाह खोती
लीन होती हैं ।
उसी में रवहीन
तेरा
गूँजता है छंद :
ऋत विज्ञप्त होता है ।
एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्त्तियाँ
सब पिघल जातीं
ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत
पुनीत
गहरी नींद की ।
उसी में से तू
बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-
गले मिलता है ।