प्रिय आवास वास सुख वंचित बहु प्रवास दुख से ऊबा।
नव उमंगमय एक चिरपथिक अभिनव भावों में डूबा।
विकच वदन अति मंद मंद सानंद सदन दिशि जाता था।
विविध तरंग तरंगित मानस रंगत रुचिर दिखाता था।1।
प्रिया प्रतीची अंकरंजिनी दिन रंजन किरणें रंजित।
उसका मन रंजन करती थीं मंजुराग कर कर व्यंजित।
गगन लालिमा मुखलाली को समधिक ललित बनाती थी।
खिलखिल कलिका कलित कुसुम की दिल की कली खिलाती थी।2।
कानों को कलोलरत खग कुलकलरव सुधा पिलाता था।
गंधा बाह बरगंधा बहन कर बहु विनोद उपजाता था।
रजनी-मुख विकसित कुमोदिनी मिस मृदु मृदु मुसकाती थी।
करा किसी विधु वदनी की सुधि निज विधु वदन दिखाती थी।3।
विभावरी ने जब तारक चय खचित रुचिर सारी पहनी।
उसी समय अवलोकी उसने सदन पास की प्रिय अवनी।
सौधा धावल प्रासाद मनोहर निकट उसी के दिखलाया।
दूर हुआ अवसाद स्वाद गृह दर्शन का उसने पाया।4।
हँसा हँसाकर दिशा वधू को कान्त कौमुदी हँसती थी।
विमल गगन भूतल पादपदल फल पर विपुल विलसती थी।
गृह उद्यान ज्योति से उसकी ज्योतिर्मय दिखलाता था।
वर प्रासाद जगमगा करके हीरक जटित जनाता था।5।
किन्तु देख नीरवता बाँकी चिन्तित पुलकित-पथिक हुआ।
निर्जनता अवलोक अनाकुल मानस आकुल अधिक हुआ।
इसी समय आलापिनि द्वारा हुआ मधुर आलाप वहीं।
जिससे सरस सुधा की धारें परम सरसता साथ बहीं।6।
फिर कोकिल-कल-कंठ नाद से लगा गूँजने ककुभ सकल।
गीत कलित कोमल पदावली बनी विकल चित का संबल।
यह सुन पड़ा, चिर पथिक कैसे चिरपथिकों का है भूला।
कैसे कुम्हला गया हमारा अति सुन्दर सुख तरु फूला।7।
क्यों जीवन सर्वस्व न मेरा जीवन सफल बनाता है।
परम प्रेम धान क्यों स्वप्रेमिका को पल पल कलपाता है।
तन में मन में युगल नयन में जिसने अयन बनाया है।
रूप मनोरम जिसका मेरे रोम रोम रम पाया है।8।
वही नहीं मिलता है मेरा दिल मल मल रह जाता है।
दिन दिन दुख दूना होता है सूना जगत दिखाता है।
बन बन फिरी बिलोके उपबन किया तपोबन में फेरा।
नगर नगर घर घर में घूमी गिरिवर पर डाला डेरा।9।
तन सूखा, मन मरा, धान गया, पड़े पगों में हैं छाले।
मिले आज तक नहीं निवारक रौरव दुख गौरव वाले।
मिले कुसुम उद्यान धूल में परम रम्य प्रासाद ढहे।
इस आनन्दमयी अवनी में निरानन्द का सोत बहे।10।
परिजन दुख पावें, जिनको जन विधि विधानवश पाता है।
किन्तु हमें आलोक निकेतन अब परलोक दिखाता है।
यह स्वर लहरी गूँज गूँज जब पवन लहर में लीन हुई।
उसी समय दो भाग मलिनता अमलनिता आधीन हुई।11।
उठी यवनिका चिर वियोग की दो संयोगी गले मिले।
बहुत दिनों के अविकच मुखड़े विकच सरोज समान खिले।
चमक चाँदनी उठी चमकते चन्द्रदेव भी दिखलाये।
विपुल प्रसून, प्रफुल्लित तरु ने पुलक पुलक कर बरसाये।12।
पथिकतीर्थ प्रेमिक था पूरा पथिका पति प्रेमिका बड़ी।
इसीलिए उनको वियोग की सहनी नाना व्यथा पड़ी।
किन्तु अन्त में, हुए विरह का अन्त, मिले दोनों नेमी।
देख जगत की रीति अधिकतर बने प्रीति पथ के प्रेमी।13।
केवल गृह उद्यान सुमन ही, नहीं सुमनता दिखलाते।
कंटक मय पथ को भी वे थे सरस सुमन मय कर पाते।
यदि उनका प्रासाद प्रेम प्रासाद पुकारा जाता था।
तो उनके प्रसाद गुण द्वारा सभी प्रसादित आता था।14।
सुफलद सुतरु समान, सलिलधार तुल्य रुचिर रस संचारी।
सुखित जनों के सुखद रहे वे दुखित जनों के दुखहारी।
देश जाति-हित वसुधा तल पर सुर सरि धारा सदृश बही।
आजीवन चिरपथिक सहित चिर पथिका सत्पथ पथिक रही।15।