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एक चिरैया सोना-माटी / संतलाल करुण

जिस बाग तू गाती गीता रे,
उस बाग में दिन मेरा बीता रे!
ओरे, सोना-माटी चिरैया
गाती तू सुख-दुख गीता रे!

जब चिरैया सुबह तू गाती
जब रे दुपहर में तू गाती
तब मैं गंगा-धार बहाता
गोमुख से सागर तक जाता
गाते-गाते साँझ ढले
चुप हो जाती मनमीता रे!

होती पतझर देख रुआँसी
मधुबन में चहकार मचाती
घनी ये आम-बबूली छाया
मैं भी तो धरती का जाया
गरमी, बरखा, जाड़ा सारा
जाता तुझ सँग बीता रे!

मौसम-बेमौसम सब होते
हाथों के फल मीठे-तीते
बीते की पाथर-पाटी के
कदम निशान कहाँ मिटते
आलस का मुर्दाघर सोता
सजग सदा जगजीता रे!

धूप-छाँह का रंग जमाता
फूल-बाग लहराता-गाता
काँटों को जो झेल न पाता
बाग से बाहर हो ही जाता
डाल-पात भी बहुत गिरे
पर बाग कभी न रीता रे!