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एक छाया / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

एक छाया-आकृति
मेले में रहने देती है
मुझे अजनबी पर
एकान्त में नहीं।
वे
भाग्यशाली हैं जो
अकेलेपन के दर्द को भोगते हैं,
हिम्मत करते और टूटते
अंधकार से लड़ते हैं,
बहादुरी का खिताब पाते, तमगे पहनते हैं,
मैं क्या करूँ?
एक छाया
मेरी हर स्थिति का गति का पीछा करती है।
जब दुनियाँ की दृष्टि बचाकर
कोई चीज छिपाकर रखता हूँ
यह उचक-उचककर देखती है,
अनभिव्यक्त रखने की इच्छा से
जब किसी विचार-तरंग को
मन पर लिखता हूँ-
यह पढ़ लेती है।
कभी-कभी
बहुत खीझकर
बर्र के डंग मारने पर जैसे
हाथ पैर पटकता हूँ
पर
यह पीछा नहीं छोड़ती।

मैंने
नितान्त गम्भीरतम् क्षणों में
जब-जब
प्रश्नाकुलता को
काँपते स्वरों में अर्थ दिया है-
क... ौ...न?
उत्तर में
हिलते छाया-होठों की शब्दहीन
भाषा
घुल गई है मेरी स्नायुओं में
पहरों रक्त-संचरणों में
ध्वनन हुआ है
तुम क...ौ....न?