Last modified on 8 जून 2016, at 11:05

एक ठेठ ढीठ औरत / अपर्णा अनेकवर्णा

सुबह से दिन कन्धे पे है सवार
उम्मीदों की फ़ेरहिस्त थामे
इसकी.. उसकी.. अपनी.. सबकी..
ज़रूरतें पूरी हो भी जाएँ..
उम्मीदें पूरी करना बड़ा भारी है..
जहाँ खड़ीं हूँ.. वहाँ से सब दिखतें हैं
दौड़ूँ जाऊँ.. नज़रें बचा के..
दो-एक बातें अपनी मन वाली भी.
कर आऊँ... बिना रोक-टोक..
पर वर्जनाएँ कुण्ठा बन गई हैं
बिना बुरा.. वीभत्स.. हार सोचे
किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँचती
ख़ुद को पुरज़ोर अन्दाज़ में
सब ओर रखती हूँ
पर ऐसा करने में चालाकियाँ
दूसरों की नज़र आती हैं..
काटती हूँ उनको अपनी चालाकियों से...
जहाँ भाँप ली जाती हूँ..
लोमड़ी करार दी जाती हूँ
जहाँ नहीं.. वहाँ बेचारी का मुँह बनाना
अब खूब आता है मुझको..
इस पूरी स्वांग-लीला से
घिन आती रहती है.. धीरे-धीरे
पर चारा कुछ भी नहीं..
या तो बाग़ी घोषित हो जाऊँ
और अकेली झेलूँ रेंगती नज़रों..
टटोलते स्वरों को..
या ओढ़ लूँ औरतपन की चादर
और चैन की साँस लूँ अकेले..
और बेचारिगी पोत लूँ मुंह पर
जैसे ही कोई छेड़े उस छाते को...
मैं ऐसे ही एक 'ढीठ' औरत थोड़े हूँ..
मैं ऐसे ही एक 'ठेठ' औरत थोड़े हूँ...