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एक तुम्हारी हॉं / संगीता गुप्ता


एक तुम्हारी हाँ
सुनने को
मन तरसता रहा
ना से हाँ के बीच
कई युग
रीत - बीत गये

अब हाँ - ना
सब एक लगते
खोना - पाना
सब एक लगता
कौन बाँध पाता
किसी को
यूँ भी देर तक
बन्द मुट्ठी में
कुछ होने का भरम
मुट्ठी के खुलते ही
टूट जाता है


भला कौन रखे
हिसाब खोने - पाने
हारने - जीतने का
जो नहीं है
नहीं है
और जो है
वह भी कब
किसका होता है