प्रोलोग
एक बातूनी बच्चा
नदी से बोलाः
तुम मुझसे नहीं बतियाती
पर मैं बतियाता हूँ तुमसे
कथा
कल शाम
तुम्हारे किनारे
एक अबोध बच्चे की तरह भटकते
मैंने अनगिन पत्थर सहेजे
और किया
अमूर्त में मूर्त का दर्शन
पाईः
भूख से बासमती तृप्ति
महसूस कीः
पत्थर से पारस की छुअन
कल रातः
जब तकिये पर सर टिकाया
तो आधा सोया,आधा जागा
मैं बुदबुदायाः नदी री!
तुम रूखे बालों वाली बेवकूफ लड़की हो
हर रोज़ धौलाधार से उतरती हो
अनादि चट्टानों पर सर पटकती हो
आवाजों के जंगल में भटकती हो
कभी अंधियारी गुफाओं में अटकती हो
और बहती हो कभी
फेनल-श्वैत-दर्पीली-सर्पिणी सी।
हे नदी ! हे नदी !
आज सुबहः
जब मैंने तुम्हारे किनारे की ठण्डी रेत पर
भागते,चलते,अंजली भरकर
तुम्हें सहेजने की कोशिश की
तुम मेरी हथेली से फिसल गई
तब
भीगे ठंडेपन में मेरा अहं कांपा
और मैंने,अपना दग्ध माथा
महाकाल की विशाल दहलीज़ पर रख दिया
दोपहर में:
मैंने पूछाः हे नदी !
यह शीतलता
तुमने किस तप में तपकर अर्जित की ?
नदी बोलीः कोई नहीं,कोई नहीं !
कुछ नहीं, कुछ नहीं !
ऐपीलोग
एक बातूनी बच्चा
बतियाता था नदी से
पर नहीं बतियाती थी नदी
एक दिन नदी बोली,
कोई नहीं,कोई नहीं
कुछ नहीं,कुछ नहीं
और अब
रात दिन
दिन रात
बतियाती बहती है नदी
भाग गये सभी बातूनी बच्चे
एक-एक
तपती दोपहर में,
बहती है एक नदीः
कोई नहीं! कोई नहीं !
कुछ नहीं! कुछ नहीं !