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एक नदी / संगम मिश्र

जन की तृषा शान्त करने को एक नदी सेवा व्रत ले ली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली।

जिन्हें सदा के लिए त्याग कर
रचने निकली नई कहानी।
शुष्क नहीं होने देता है,
उन्हीं करुण आँखों का पानी।
जितने प्यासे मिले डगर में
गाँव नगर वन उपवन सारे।
घट घट में मृदुजल भरने को
प्रतिपल रहते खड़े किनारे।

मन में करुणा और बढ़ाती जलजीवों की प्रिय रँगरेली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली।

कभी दिवस के चण्ड ताप से,
उसका कोमल तन जल जाता।
कभी घनी निस्तब्ध निशा में,
कल्पित भय से मन घबराता।
घन से जलते तीर छिटककर
गर्जन कर गिरते हैं तन पर।
कभी कभी भीषण बरखा भी
भारी पड़ जाती है मन पर।

रैन दिवस कुछ रास न आया केवल बाधाओं से खेली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली।

लम्बे चौड़े सँकरे पथ की
दुर्गमता को जान न पाती,
गिरती पड़ती कभी अचानक
पर्वत से जाकर टकराती।
गिरकर छिल जाता कोमल तन
पैरों में छाले पड़ जाते।
कभी कभी तो मर जाने के
दुखदायक अवसर भी आते।

उत्कट इच्छा ही जन-जन की सबसे प्रिय सन्निकट सहेली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली।

जन जीवन का मैल निगल कर
प्रतिपल तड़प-तड़प कर जीती।
अन्तिम क्षण में भी दुखियारी
सागर का खारा जल पीती।
प्यासे हुए सभी प्राणी को
अपना निर्मल नीर पिलायी।
मिलने को जिससे व्याकुल थी
उससे भी खारापन पायी।

अन्तकाल तक जान न पाई जीवन की अज्ञात पहेली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली।
जन की तृषा शान्त करने को एक नदी सेवा व्रत ले ली।
गागर में मृदु सागर भरकर निज पथ पर चल पड़ी अकेली॥