ये पत्ता जिसे बथुआ कहते हैं
उगता है कहीं भी
उत्तर भारत के
खेतों और मैदानों में
यह वही पत्ता है
जिसके साथ वह दो बड़ी रोटियाँ खा रही थी
एक स्त्री कवि साहसमय बेशर्मी ठान कर
उसे अपनी इस भूख पर शर्म थी
रोटी बनाई थीं एक कैंसर ग्रस्त स्त्री ने
यह बात है दो स्त्रियों की
जो इत्तेफाक़ से माँ बेटी थीं
बथुए से रोटी खा कर
उस स्त्री ने लिखी ऐसी कविता
जिसे समझना नहीं अपनाना मुश्किल है
समझ तो लेते हैं उसे फिर भी
चतुर और भले लोग
उसमें एक कड़वापन है जैसे नीम में होता है
वह दिखाती है आम सहमति की
एक कुत्सित जगह
मामूली समझौतों में छिपी जघन्यताएँ
शराफत और सफलता में छिपी
एक बदबू
जो मुर्दों के सड़ने पर आती है
इन सबके बीच
प्रकृति का कण अजब
जैसे कुदरत का पारस
उस अजानी स्त्री की अजानी कविता को
एक दिन सम्भव बनाया
इसी बथुए ने
कहते हैं इसमें सोना होता है
आप पत्ते को पलट कर देखिए
आपको भ्रम होगा
उसमें ओस चमक रही है
वह एक मख़मल ओढ़े है
यह एक जीवित धातु का घर है
इस पत्ते की वजह से
अकेले लोग भी अकेले नहीं होते।