[प्रभाकर माचवे : शमशेर]
पहला पत्र: एक पद्यबद्ध चक्कर
(कार्ड)
बस के लिए राह देखते हुए:
नई दिल्ली : 17.08.53
"तुमने लिखा है पत्र मुझे गजलबंद कर?
मैं आज ही हुआ हूँ यहाँ से रिलीव, मगर
जाना है नागपुर को। पहुँच जाऊँगा उधर
छब्बीस तलक। और यूँ ही होते ट्रांसफर।
रेडियो की नौकरी ही है हवा पर सफर।
वहीं पत्र लिखो, मित्र। राम-राम
प्रेम से भरा सलाम लो कि -
प्रभाकर।"
दूसरा पत्र : जवाब का वह 'गजलबंद' चक्कर
जो चलता ही रहा और इस बीच हजरत माचवे नागपुर से
दिल्ली वापस भी आ गये : चुनांचे -
(पहला हिस्सा : प्रभाकर "नागपुरी" को)
दिल्ली वालों को ही हवा छोड़ के घर-भर अब तो
नागपुर आ ही गया होगा, प्रभाकर। अब तो
बँध गयी होगी हवा। होगे हवा पर अब तो!
दिल्ली बस-स्टैंड से ही कार्ड मिला था मुझको।
काश फिर लिखते - 'वही है जो गिला था मुझको1।'
ताकि हम कहते कि 'है जुल्म सरासर अब तो!'
घर में हो चाहे सफर में, यही कहते होगे...
फल्सफे में कि शेSर में: यही कहते होगे -
'जिंदगी है मेरी सरकार का दफ्तर अब तो!'
वाँ जमाने के सताये हुए दो और भी हैं।2
वही तेवर हैं जो थे, और वही तौर भी हैं।
मिल लिये होंगे मेरी याद दिलाकर अब तो।
[और फिर यह, प्रभाकर "दिल्लीवाल" को : ]
जिसकी बरकत ही न थी अपने करम में अब तक
तुम भरमते तो रहे उसके भरम में अब तक!
- चैन लेने दे कहीं आर्ट का चक्कर अब तो!
कहा मेहता ने : 'य सरकार है नौकर जिसकी,
अब तमन्ना है तो उसकी ही फकत सर्विस की!'
और यह कहके मेरा यार गया घर अब तो!
सच की सिल्ली है वही, और नयी है फिर भी :
नयी दिल्ली है वही और नयी है फिर भी !
हैं कसौटी पर नये और प्रभाकर अब तो !
क्या थे पहले ही जो अब और भी कम हों शमशेर !
हो 'गजलबंद' वो मजमून जो हम हों, शमशेर;
वर्ना खामोश पड़े रहना ही बेहतर अब तो!
एक धंदा है य उलफत भी कई धंदों में।
लिक्खा बंदे ने जवाब, और कई बंदों में।
पोस्ट गो करना न करना है बराबर अब तो!
1. एक प्रायवेट गिला 2. दो मस्तमौला दोस्त, जो सच्चे प्रयोगवादी कवि भी हैं - मुक्तिबोध और नरेश मेहता।