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एक पुराना अफ़ेयर / उज्ज्वल भट्टाचार्य

वह मिली
दस साल बाद

मैं अधेड़ था
वह मुझसे काफ़ी छोटी थी
जैसी कि
बुद्धिजीवियों की प्रेमिकाएँ हुआ करती हैं
छिपकर मुझसे मिलती थी
और हम पहचानने की कोशिश करते थे
एक-दूसरे को
हर तरीके से
यानी जो भी तरीके मुमकिन हैं
पता नहीं हमने पहचाना कि नहीं
पता नहीं हमें प्रेम था या नहीं
लेकिन कुछ था
और हम ख़ुश थे

आज वह भी दहलीज पर खड़ी है
अधेड़ होने के लिए
ख़ूबसूरत है
कहवे की प्याली में चुस्की लेते हुए मैंने देखा —
जिस्म कुछ भरा-भरा-सा है
लेकिन
अल्हड़ बनने की कोशिश भी नहीं करती है

अपना हाल बताओ
क्या करते रहे ?
उसने पूछा
क्या कहता मैं
कन्धे उचकाकर रह गया
सिगरेट का पैकेट निकालना चाहा
फिर याद आया
अब यहाँ सिगरेट पीना मना है
‘इतना घूमते रहते हो
इतने लोगों से मिलते हो
और कहने को कुछ भी नहीं ?‘
उलाहना देते हुए उसने कहा।

मैंने कहा —
तुम्हीं बताओ।
फिर पता चला
उसके पति को एक बाईपास हो चुका है
बेटे को बोस्टन में स्कॉलरशिप मिला है
और उसे गुरू —
‘बड़ी शान्ति मिलती है‘
उसने कहा

कहवा खत़्म हुआ
मुलाक़ात का वक़्त भी
उठकर जाने से पहले
अचानक उसने मेरे हाथ पर हाथ रखा
फिर कहा :
अपना ख़याल रखना
और देखो
सिगरेट छोड़ दो
शायद उसे अपने पति की चिन्ता थी
या शायद मेरी भी ?

फिर हम उठकर चल दिए
पहले की तरह पूछा नहीं —
अगली मुलाक़ात कब हो सकती है ?