जलते मोम दीपों पर
टिके दो नेत्रों ने
मेरा आकार हर लिया
क्षण भर तो
अंधकार साकार कर दिया
इस गुफा को अंध-रत्ता क्यों है ?
कौन है धृतराष्ट्र ?
सुनती हो गांधारी !
भुने मांस की गंध का दर्द
तुम्हीं ने जिया है न ?
आत्महत्या की इस भट्टी में
चटकी हैं
एक जोड़ा आंखें
जानती हो गांधार पुत्री
कि इस गुफा के द्वार पर
श्रवणकुमार का अंधा पहरा था
पहचान न सकी तुम
अपनी पुष्ट मांसपेशियों पर
राख रचाए बैठे द्वारपाल को
संताप-दग्ध मानवीय मन....
धृतराष्ट्रों की सेनायें....
श्रवण रे ! गांधारी ओ !
तुम प्रश्नों के कैसे हल हो ?