Last modified on 19 मई 2014, at 13:59

एक प्रेम कविता / विजेन्द्र

प्यार को भी देखता हूँ
इन्ही मासूम रंगों में
तेज़, सुर्ख़, हल्के गुलाबी
न हों, न हों, न हों
धूप में तपे चेहरे की तरह
देखता हूँ तुम्हें हर बार
काले रंग की धारियों में
कौन सा क्षण
दहशत खाया हुआ
प्रजनन को आतुर
पक्षी की तड़प की तरह
बहुत कुछ राख़ हो चुका जीवन
बेहद कमज़ोर क्षणो में
दिया है एहसास उसने
हुआ है मेरा चित्त उज्ज्वल
सृजन को हर लम्हा
सच के लिए झेले है
पैने सींग और नाख़ून .तीखे
अपनों ने ही भुलाया है मुझे
ज़िन्दा रहा हूँ कविता और प्यार के बल पर
मोक्ष नही, मोक्ष-धाम नही
चाहा है सदा रचना कर्म ही
क्यों लगने लगा है व्यर्थ
पका श्रीफल भी
जितना हुआ हूँ दूर जीवन से,
वृक्षों से, जल से, हवा से
खोया है उल्लास मै ने
दिखाई दे रहा दूर तक
बरसता पतझड़
सूखी टहनियों को खरोंचता
भीगा रुदन हर पल
लगने लगे है तुम्हारे उपदेश झूठे
पर नहीं ऊबा मन
कविता और प्रेम से ।