ओ अनंग ! यों तंग करो ना
यह वासन्ती रात चाँदनी
लगे कि ज्यों षोडसी कामिनी
बैरन बनी सताये, इसके
अधरों पर ही अधर धरो ना
मलय पवन यों झोंके मारे
मन का पंछी उड़-उड़ हारे
आये हो क्यों मेरे द्वारे
इन झोकों पर ही बिखरो ना
फूलों की यह गंध सुहानी
मन करता है आनाकानी
धरती की यह चूनर धानी
इसमें ही तुम रंग भरो ना
मैं तो तृप्त एक वैरागी
अतनु ! मित्रता कब की त्यागी
दरस-परस से स्मृति जागी
इसे सँवार स्वंय सँवरो ना
ये टेसू के फूल रसीले
थे उन्नत उरोज गर्वीले
तिरछी चितवन, हाव हठीले
झेल-झेल तुम ही निखरो ना