जब भी होठों एक क़टोरों से
उबलता हुआ
एक बूँद शब्द
जीवन की ढलान पर
फिसल जाता है
में बहुत निरीह हो उठती हूँ
फिर(अपनी नज़र में)
आस्था की पसली बह निकलती है।
जब भी होठों एक क़टोरों से
उबलता हुआ
एक बूँद शब्द
जीवन की ढलान पर
फिसल जाता है
में बहुत निरीह हो उठती हूँ
फिर(अपनी नज़र में)
आस्था की पसली बह निकलती है।