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एक बेबस शाम / अनुभूति गुप्ता

न परिवार का सुख
दूर-दूर तक पसरा
बस दुःख ही दुःख।
न अपनेपन का नाता
न कोई उसके
मन को भाता।
    न खुद को पाया
    न मिली वृक्ष की छाया।
जीवन की आपाधापी में
’एक बालक’
नित ही मुरझाया,
साँझ होते ही
सब
अपने-अपने घर को लौटे,
एक वही बचा अकेला
जिसे खोजने
कोई न आया।

एक बेबस शाम
’बालक’ ने
’गाय का बछड़ा’
अपनेपन से देखता हुआ पाया
उसका न था,
कोई अपना-पराया।
बालक के आगे पीछे घूमता
टकटकी लगाये देखता।
बड़े प्यार से
’बालक’ के पास आकर
वह चुपचाप बैठ गया
बालक ने स्नेह से
बछड़े को पुचकारा,
अपनी जुटाई हुई रोटी को
उसके सामने सरकाया।
दोनों संग-संग ही रहने लगे,
एक दिन-
’बालक’ कान में
बछड़े के
फुसफुसाते हुए बोला-
   लगता है,
   तू भी इस संसार मंे
   मेरे जैसा ही
   बेसहारा अकेला,
चल साथ में ही
अपना सुख-दुःख बाँटेंगे
मिलकर जीवन की
गठरी से
सुख-सुख ही छाँटेगे।