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एक मुट्ठी धान में / उदयप्रताप सिंह

ये रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिंदोस्ताँ कहाँ है अब हिंदोस्तान में।

इन बादलों की आँख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में।

तस्वीर के लिये भी कोई रूप चाहिये
ये आईना अभिशाप है सूने मकान में।

जनतंत्र में जोंकों की कोई आस्था नहीं
क्या फ़ायदा संशोधनों से संविधान में।

मानो न मानो तुम ’उदय’ लक्षण सुबह के हैं
चमकीला तारा कोई नहीं आसमान में।