गाँव के स्कूल की
वो पुरानी सी इमारत,
बेरंग दीवारें,
बड़े से अहाते में,
खोह-खोह खेलती लड़कियां,
और लड़के मैदान में लड़ते,
जहाँ पढाते थे एक मास्टरजी,
जिनके हाथ में होती थी,
एक बड़ी सी छड़,
एक दरबान,
जो साँस लेना भूल सकता था,
मगर घंटा बजाने में
कभी चूक नही करता था,
वापसी में हम खेतों से होकर जाते थे,
जहाँ पानी भरा रहता था,
कीचड़ से सने पाँव लेकर,
कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे,
उन कदमों के निशां,
अभी मिटे नही हैं...