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एक रोज़ / प्रतिभा कटियार

एक रोज़
मैं पढ़ रही होऊँगी
कोई कविता
ठीक उसी वक़्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम ।

एक रोज़
मैं लिख रही होऊँगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बाँधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छाँव में ।

एक रोज़
जब कोई आँसू आँखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक़्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम ।

एक रोज़
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ाएँगे क़दम
तो सिर्फ़ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम ।

एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का ।

एक रोज़
जब मैं बंद कर रही होऊँगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे ज़िंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पाएँगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज़....