एक शाम ऐसी भी कोई,
थकी न हो जो,
दर्ज़ नहीं मेरे खाते में।
रोटी, कांदा, मिर्च, नून से,
खा न सका दो दिन सुकून से;
ख़री कमाई पिसी न हो जो
पत्थर के चक्की-जाँते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।
करती हो जो बात अभय की,
ऐसी कोई रीढ़ समय की;
झुकी न हो जो
डंडी जैसी हर छाते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।
हर तक़दीर जवान हुई पर,
बेकारी में भटकी दर-दर-पड़ी न हो जो,
जुर्म ज़मानत के फेरे में।
उलझन के रिश्ते-नाते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।
एक शाम ऐसी भी कोई
थकी न हो जो,
दर्ज़ नहीं मेरे खाते में।