Last modified on 14 मई 2018, at 16:08

एक शाम ऐसी भी कोई / नईम

एक शाम ऐसी भी कोई,
थकी न हो जो,
दर्ज़ नहीं मेरे खाते में।

रोटी, कांदा, मिर्च, नून से,
खा न सका दो दिन सुकून से;
ख़री कमाई पिसी न हो जो
पत्थर के चक्की-जाँते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।

करती हो जो बात अभय की,
ऐसी कोई रीढ़ समय की;
झुकी न हो जो
डंडी जैसी हर छाते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।

हर तक़दीर जवान हुई पर,
बेकारी में भटकी दर-दर-पड़ी न हो जो,
जुर्म ज़मानत के फेरे में।
उलझन के रिश्ते-नाते में, दर्ज नहीं मेरे खाते में।

एक शाम ऐसी भी कोई
थकी न हो जो,
दर्ज़ नहीं मेरे खाते में।