एक सौंदर्यलुब्ध की आत्मकथा
बियाबान जंगल था,
उसके किनारे एक आलीशान महल था-
अनगिनत कंगूरे, कक्ष,
वैभव, कलाकारी दक्ष ।
मैंने जो देखा तो मुग्ध मन हो गया,
उसकी सुन्दरता में जीवन ही खो गया ।
सोचा : अब इसे छोड़ और भला जाऊँ कहाँ,
अच्छा है, निर्जन में रहूँ और गाऊँ यहाँ,
इतना ही नहीं, दिखे अन्य कई आकर्षण,
सुबह स्वर्ग-संगीत, शाम ढले मधु-वर्षण ।
महल के बीचोबीच शुभ्र पट्टिका भी थी,
मुझ जैसे कवि के हित मानो जीविका ही थी।
रहा उस महल में और लिखा उस शिला पर,
स्वेद-रक्त-प्राण किए सब उसपर न्यौछावर,
निर्मित कीं अनेकानेक उत्तम कलाकृतियाँ…
किन्तु एक अशुभ घड़ी आई
भाग्यदेव रूठे,
देवी कला की रूठीं।
उलटे नक्षत्र, कालचक्र हुआ विपरीत,
शत्रु बनकर बोले वे, अब तक जो रहे थे मीत-
कलाकार । अभिशाप साकार करो स्वीकार :
रहते थे जिसमें- रेतमहल हो जाएगा ।
लिखते थे जिसपर-बन जाएगी वही, सुन लो
पानी की एक लहर ।
और कलाकृतियाँ ?
सब भग्नस्वप्न, नष्ट ।
सब बुदबुद, सब व्यर्थ ।