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एक स्केच / शुन्तारो तानीकावा

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हम सारे करीब करीब मर चुके हैं

झीने धुंए के कफन से ढंके जंगल में

एक मक्खी फंस गई है मकड़ी के जाल में

घास पर औंधा पड़ा है एक इन्सुलेटर।


धीरे धीरे नष्ट होते हुए भी मैं याद करता हूं

खुलना शुरू करते हुए एक स्त्री के होंठ

और उस भीतरी अन्धकार में

एक गतिमान जीभ।


क्या शब्द बोले ही जाने वाले थे?

क्या वह मुझे सहलाए जाने की शुरुआत हो सकती थी?

क्या किसी को जरूरत थी पानी के गिलास की?

क्या यह हो सकता था कि वे सारे के सारे एक समान थे?

अपनी ईमानदार आंखों ¸ कानों¸ मुंह और जननेन्दियों की मदद से

इन्हीं चीजों की मदद से मैंने भी लिखा¸

बिना किसी अर्थ के स्वाद का आनन्द लेते हुए।


जली हुई पानी से तर

बमुश्किल अपना आकार बचाए लौंदा बन चुकी एक किताब

मद्धम धूप में पड़ी है फफूंद लगी पत्तियों पर

और वहां अब भी समय खुदा हुआ है।

वार करने को तत्पर और तीखेपन के साथ फैलती हुई

कड़ियल मिठास और अंधा बना देने वाली कड़वाहट के साथ

वह धुंधलाती जाती है:

एक अजनबी फल की स्मृति।



(अनुवाद : अशोक पांडे )