ऐसा भी कोई दिन होगा,
जबकि नहीं होंगी मुठभेड़ें-
क्या ऐसा कोई दिन होगा?
सुबह खुली आँखों के आगे
हँसता हुआ कमलवन होगा।
क्या ऐसा कोई दिन होगा?
हिरन-चीतलों की शेरों से
आज हो रही हैं मुठभेड़ें,
इस पाले में क्षुधित भेड़िए,
उसमें मरघिल्ली कुछ भेड़ें;
तपते रेत बनों में शायद,
दौड़ रही है व्यथित रेणुका
ऋषि क्रोधित जमदागिन होगा।
आज हो रही मुठभेड़ों में
चोले, चेहरे बहुत साफ हैं,
राजे हैं-उनकी मत पूछो,
उनके तो सौ खू़न माफ हैं;
कब होंगे आयोग गठित वो,
जिनकी नज़रों में राजे का-
ख़ून सना ये दामन होगा।
प्रायोजित जनमंचों पर खू़नी फव्वारे,
क़त्लगाह औ बूचड़खाने,
हत्यारे, खूनी क़साई ये
कब तक जाएँगे सम्माने?
अपनी तो जैसी-तैसी-
कट गई, किंतु आनेवालों का
कैसा बचपन, यौवन होगा?