सॉनेट और त्रिलोचन : काठी दोनों की है
एक । कठिन प्रकार में बंधी सत्य सरलता ।
साधे गहरी सांस सहज ही...ऎसा लगता
जैसे पर्वत तोड़ रहा हो कोई निर्भय
सागर-तल में खड़ा अकेला; वज्र हृदयमय ।
नैसर्गिक स्वर में जब ऐसी गूढ़ अगमता
स्वयं बोलती हो जो युग की अवास्तविकता
को मानो ललकार रही हो, तब नि:संशय
अंतस्तल खिल-खिल जाता : चट्टानें भीतर
दुखती-सी कसमस जीवन की ।
-बढ़कर उन पर
सीधी चोट लगाऊं, उनको ढाऊं बरबस
डूबी हुई खान की निधियां अपनी सरबस !
लाऊं ऊपर ! अपने अंदर ऐसा ही प्रण
लिए हुए हैं शायद सॉनेट और त्रिलोचन ।
(रचनाकाल :1957)