क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला
पेट की भूख़ भूल जाता,
और प्यासे मन की
दाह को तृप्त कर पाता...
क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला
अपनी थकन को खूंटी पर उतार टांगता,
और पसीने से लथ-पथ बदन को
हवाओं में लिपटा पाता,
क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला
देख पाता अपना अक्स उसमें,
और टूटे ख्वाबों की किरचों को
फ़िर से जोड़ पाता...
क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
कि पढ़ने वाला
रुई की मानिंद हल्का हो जाता,
पंछियों सा उड़ता,
और मछलियों सा तैर पाता...
क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता,
जिसका हर्फ़ हर्फ़ आँखों में
आँसू की तरह उतर आता,
परदे़स में आयी,
वतन की याद सा बिखर जाता....
सुबह जब देखी,
रात भर की जगी...
थकी... उदास...
ऑंखें तुम्हारी मैंने,
बस यही सोचा -
क़ाश...
मैं ऐसी कोई कविता लिख पाता.....