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ऐसी नहिं कीजै लाल / भारतेंदु हरिश्चंद्र

ऐसी नहिं कीजै लाल, देखत सब संग को बाल;
काहे हरि गए आजु बहुतै इतराई।
सूधे क्यौं न दान लेहु, अँचरा मेरो छाँड़ि देहु;
जामैं मेरी लाज रहै, करौ सो उपाई।
जानत ब्रज प्रीत सबै, औरहू हँसेंगे अबै;
गोकुल के लोग होत बड़े ही चवाई।
’हरीचंद’ गुप्त प्रीति, बरसत अति रस की रीति;
नेकहू जो जानै कोई, प्रगटत रस जाई॥