राग रामकली
जसुदा! यह न बूझि कौ काम ।
कमल-नैन की भुजा देखि धौं, तैं बाँधे हैं दाम ॥
पुत्रहु तैं प्यारी कोउ है री, कुल-दीपक मनिधाम ।
हरि पर बारि डार सब तन, मन, धन, गोरस अरु ग्राम ॥
देखियत कमल-बदन कुमिलानौ, तू निरमोही बाम ।
बैठी है मंदिर सुख छहियाँ, सुत दुख पावत घाम ॥
येई हैं सब ब्रजके जीवन सुख प्रात लिएँ नाम ।
सूरदास-प्रभु भक्तनि कैं बस यह ठानी घनस्याम ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `यशोदा जी यह समझदारी का काम नहीं है । देखो तो तुमने रस्सी से कमललोचन श्याम के हाथ बाँध दिये हैं । अरी ! कुल के दीपक (कुल को नित्य उज्ज्वल करने वाले) तथा घर को मणि की भाँति प्रकाशित करने वाले पुत्र से भी बढ़कर कोई प्यारा है? श्यामसुन्दर पर तन, मन, धन, गोरस और गाँव-सब कुछ न्योछावर कर दे । मोहन का कमल-मुख मलिन हुआ दिखायी पड़ता है, किंतु तू बड़ी निर्मम स्त्री है जो स्वयं तो भवन की छाया में सुखपूर्वक बैठी है और पुत्र धूप में दुःख पा रहा है, सूरदास जी कहते हैं कि ये ही समस्त व्रज के जीवन हैं, प्रातःकाल ही इनका नाम लेने से आनन्द होता है । मेरे स्वामी घनश्याम ने भक्तों के वशी भूत होकर यह लीला की है ।