आवर्तित सन्नाटा
बजता है बाहर-भीतर ।
भारी थर्राते हैं
शब्दों के - अर्थों के
ध्वनियों - संकेतों के
ऐसे में, रूप रंग स्वर ।
ओरपास यहीं कहीं
लगता है —
गंधक की
एक भरी वैगन में आग लगी हो ।
गुहराता एक जिन
अँधेरे से बार-बार
थूनी की पोल को जिजीविषा कहो ।
भावक्षणों में फिरतीं
निधड़क गोहें - विशखापर
परतों - दर - परतों में
खुलने के आग्रह को
क्लिंज क्लिंज - चिट चिट के
भभकी वाले ढब में
नए - नए दिखलातीं डर ।
भारी थर्राते हैं
शब्दों के - अर्थों के, ध्वनियों - संकेतों के
ऐसे में, रूप रंग स्वर ।